भाषा वंदना
करते हैं तन मन से वंदन, जन गण मन की अभिलाषा का,
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।
ये अपनी सत्य सर्जना के, माथे की है चंदन-रोली,
मां के आंचल की छाया में, हमने जो सीखी है बोली,
ये अपनी बंधी हुई अंजुरी, ये अपने गंधित शब्द-सुमन,
यह पूजन अपनी संस्कृति का, ये अर्चन अपनी भाषा का।
अपने रत्नाकर के रहते, किसकी धारा के बीच बहें,
हम इतने निर्धन नहीं कि वाणी से औरों के ऋणी रहें।
इसमें प्रतिबिंबित है अतीत, आकार ले रहा वर्तमान,
ये दर्शन अपनी संस्कृति का, ये दर्पण अपनी भाषा का।
यह ऊंचाई है तुलसी की, यह सूर सिंधु की गहराई,
टंकार चंद्रबरदाई की, यह विद्यापति की पुरवाई,
जयशंकर का जयकार, निराला का यह अपराजेय ओज,
यह गर्जन अपनी संस्कृति का, यह गुंजन अपनी भाषा का।
करते हैं तन मन से वंदन, जन गण मन की अभिलाषा का,
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।
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