सोमवार, 11 सितंबर 2023

भाषा वंदना :सोम ठाकुर

 भाषा वंदना


करते हैं तन मन से वंदन, जन गण मन की अभिलाषा का,

अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।


ये अपनी सत्य सर्जना के, माथे की है चंदन-रोली,

मां के आंचल की छाया में, हमने जो सीखी है बोली,

ये अपनी बंधी हुई अंजुरी, ये अपने गंधित शब्द-सुमन,

यह पूजन अपनी संस्कृति का, ये अर्चन अपनी भाषा का।


अपने रत्नाकर के रहते, किसकी धारा के बीच बहें,

हम इतने निर्धन नहीं कि वाणी से औरों के ऋणी रहें।

इसमें प्रतिबिंबित है अतीत, आकार ले रहा वर्तमान,

ये दर्शन अपनी संस्कृति का, ये दर्पण अपनी भाषा का।


यह ऊंचाई है तुलसी की, यह सूर सिंधु की गहराई,

टंकार चंद्रबरदाई की, यह विद्यापति की पुरवाई,

जयशंकर का जयकार, निराला का यह अपराजेय ओज,

यह गर्जन अपनी संस्कृति का, यह गुंजन अपनी भाषा का।


करते हैं तन मन से वंदन, जन गण मन की अभिलाषा का,

अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।

रविवार, 10 सितंबर 2023

एक मुलाकात स्वयं से ही

 नमस्कार दोस्तों,

कई सालों बाद आज मैंने अपना ब्लॉग खोला।

अब फिर से नियमित  लिखती रहूं, यह प्रयास रहेगा।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

युगपुरुष मोदी

       युगपुरुष मोदी

मोदी ने नए समाज की नींव खोदी
सुख का ख्वाब सब देख सकते हैं ऎसी फसल बो दी
जिन्हे किया था सबने अनदेखा
उन्हे केवल मोदी ने ही देखा
शौच से सुरक्षा तक
आत्मसम्मान से अभिमान तक
जो भी दे सकते थे उनसे लिया
जिन्हे जरूरत थी उन्हें दिया
तंज सहे पर डटे रहे
सामन्ती व्यवस्था के खिलाफ अटे रहे
अगर डर जाते तो करना पड़ता
सदियों तक देश को इंतजार
फिर किसी फरिश्ते के पैदा होने का
लौह पुरुष से एक युगपुरुष का.....
मधु राठौर

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

kahani

राजपूत कैदी
तोल्सतोय

अनुवाद - प्रेमचंद

धर्म सिंह नामी राजपूत राजपूताना की सेना में एक अफसर था। एक दिन माता की पत्री आई कि मैं बूढ़ी होती जाती हूँ, मरने से पहले एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है, यहाँ आकर मुझे विदा कर आशीर्वाद लो और क्रिया कर्म करके आनंदपूर्वक नौकरी पर लौट जाना। तुम्हारे वास्ते मैंने एक कन्या खोज रखी है, वह बड़ी बुद्धिमती और धनवान है। यदि तुम्हें भाए तो उससे विवाह करके सुखपूर्वक घर ही पर रहना।
उसने सोचा- ठीक है, माता दिनों-दिन दुर्बल होती जा रही है, संभव है कि फिर मैं उसके दर्शन न कर सकूँ। इस कारण चलना ही ठीक है। कन्या यदि सुंदर हुई तो विवाह करने में क्या हानि है। वह सेनापति से छुट्टी लेकर, साथियों से विदा हो, चलने को प्रस्तुत हो गया।
उस समय राजपूतों और मरहठों में युद्ध हो रहा था। रास्ते में सदैव भय रहता था। यदि कोई राजपूत अपना किला छोड़कर कुछ दूर बाहर निकल जाता था, तो मरहठे उसे पकड़कर कैद कर लेते थे। इस कारण यह प्रबंध किया गया था कि सप्ताह में दो बार सिपाहियों की एक कंपनी मुसाफिरों को एक किले से दूसरे किले तक पहुँचा आया करती थी।
गरमी की रात थी। दिन निकलते ही किले के नीचे असबाब की गाड़ियाँ लाद कर तैयार हो गईं। सिपाही बाहर आ गए और सबने सड़क की राह ली। धर्म सिंह घोड़े पर सवार हो, आगे चल रहा था। सोलह मील का सफर था, गाड़ियाँ धीरे-धीरे चलती थीं। कभी सिपाही ठहर जाते थे, कभी गाड़ी का पहिया निकल जाता था तो कभी कोई घोड़ा अड़ जाता था।
दोपहर हो चुकी थी। रास्ता आधा भी नहीं कटा था। गरम रेत उड़ रही थी। धूप आग का काम कर रही थी। छाया कहीं नहीं थी। साफ मैदान था। सड़क पर न कोई वृक्ष, न झाड़ी। धर्म सिंह आगे था और कभी-कभी इस कारण ठहर जाता था कि गाड़ियाँ आकर मिल जाएँ। मन में विचारने लगा कि आगे क्यों न चलूँ। घोड़ा तेज है, यदि मरहठे धावा करेंगे, तो घोड़ा दौड़ा कर निकल जाऊँगा। यह सोच ही रहा था कि चरन सिंह बंदूक हाथ में लिए उसके पास आया और बोला- आओ, आगे चलें। इस समय बड़ी गरमी है। भूख के मारे व्याकुल हो रहा हूँ। सभी कपड़े पसीने में भीग रहे हैं। चरनसिंह भारी भरकम आदमी था। उसका मुँह लाल था।
धर्म सिंह- तुम्हारी बंदूक भरी हुई है?
चरन सिंह- हाँ, भरी हुई है।
धर्म सिंह- अच्छा चलो, पर बिछुड़ न जाना।
यह दोनों चल दिए, बातें करते जाते थे, पर ध्यान दाएं बाएं था। साफ मैदान होने के कारण दृष्टि चारों ओर जा सकती थी। आगे चलकर सड़क दो पहाड़ियों के बीच से होकर निकलती थी।
धर्म सिंह- उस पहाड़ी पर चढ़ कर चारों ओर देख लेना उचित है। ऐसा न हो कि अचानक मरहठे कहीं से आकर हमें पकड़ लें।
चरन सिंह- अजी, चले भी चलो।
धर्म सिंह- नहीं, आप यहाँ ठहरिए, मैं जाकर देख आता हूँ।
धर्म सिंह ने घोड़ा पहाड़ी की ओर फेर दिया। घोड़ा शिकारी था, उसे पक्षी की भाँति ले उड़ा। वह अभी पहाड़ी की चोटी पर नहीं पहुँचा था कि सौ कदम आगे तीस मरहठे दिखाई पड़े। धर्म सिंह लौट पड़ा, परंतु मरहठों ने उसे देख लिया और बंदूकें सँभाल कर घोड़े दौड़ा, उस पर लपके। धर्म सिंह बेतहाशा नीचे उतरा और चरन सिंह को पुकार कर कहने लगा- बंदूकें तैयार रखो और घोड़े से बोला- प्यारे, अब समय है। देखना, ठोकर न खाना नहीं तो झगड़ा समाप्त हो जाएगा, एक बार बंदूक ले लेने दे....फिर मैं किसी के बाँधने का नहीं। उधर चरन सिंह मरहठों को देखकर घोड़े को चाबुक मार, ऐसा भागा कि गरदे में घोड़े की पूँछ ही पूँछ दिखाई दी, और कुछ नहीं।
धर्म सिंह ने देखा कि बचने की आशा नहीं है, खाली तलवार से क्या बनेगा, वह किले की ओर भाग निकला; परंतु छह मरहठे उस पर टूट पड़े। धर्म सिंह का घोड़ा तेज था, पर उनके घोड़े उससे भी तेज थे। तिस पर यह बात हुई कि वे सामने से आ रहे थे। धर्म सिंह चाहता था कि घोड़े की बाग मोड़कर उसे दूसरे रास्ते पर डाल दे, परंतु घोड़ा इतना तेज जा रहा था कि रुक नहीं सका। सीधा मरहठों से जा टकराया। सजे घोड़े पर सवार बंदूक उठाए लाल दाढ़ी वाला एक मरहठा दाँत निकालता हुआ उसकी ओर लपका। धर्म सिंह ने कहा कि मैं इन दुष्टों को भलीभाँति जानता हूँ। यदि वे मुझे जीता पकड़ लेंगे तो किसी कंदरा में फेंककर कोड़े मारा करेंगे, इसलिए या तो आगे निकलो, नहीं तो तलवार से एक-दो को ढेर कर दो। मरना अच्छा है, कैद होना ठीक नहीं। धर्म सिंह और मरहठों में दस हाथ का ही अंतर रह गया था कि पीछे से गोली चली। धर्म सिंह का घोड़ा घायल होकर गिरा और वह भी उसके साथ ही धरती पर आ रहा।
धर्म सिंह उठना चाहता था कि दो मरहठे आकर उसकी मुस्कें कसने लगे। धर्म सिंह ने धक्का देकर उन्हें दूर गिरा दिया, परंतु दूसरों ने आकर बंदूक के कुंदों से उसे मारना शुरू किया और वह घायल होकर फिर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मरहठों ने उसकी मुस्कें कस लीं, कपड़े फाड़ दिए, रुपया-पैसा सब छीन लिया। धर्म सिंह ने देखा कि घोड़ा जहाँ गिरा था, वहीं पड़ा है। एक मरहठे ने पास जा कर जीन उतारनी चाही। घोड़े के सिर में एक छेद हो गया था। उसमें से काला रक्त बह रहा था। दो हाथ इधर-उधर की धरती कीचड़ हो गई थी। घोड़ा चित्त पड़ा हवा में पैर पटक रहा था। मरहठे ने गले पर तलवार फेंक दी, घोड़ा मर गया। उसने जीन उतार ली।
लाल दाढ़ी वाला मरहठा घोड़े पर सवार हो गया। दूसरों ने धर्म सिंह को उसके पीछे बिठाकर उसे उसकी कमर से बाँध दिया और जंगल का रास्ता लिया।
धर्म सिंह का बुरा हाल था। मस्तक फटा था, लहू बहकर आँखों पर जम गया था। मुस्कों के मारे कंधा फटा जाता था। वह हिल नहीं सकता था। उसका सिर बार-बार मरहठे की पीठ से टकराता था। मरहठे पहाड़ियों पर ऊपर नीचे होते हुए एक नदी पर पहुँचे, उसे पार करके एक घाटी मिली। धर्म सिंह यह जानना चाहता था कि वे किधर जा रहे हैं। परंतु उसके नेत्र बंद थे, वह कुछ न देख सका।
शाम होने लगी, मरहठे दूसरी नदी पार करके एक पथरीली पहाड़ी पर चढ़ गए। यहाँ धुआं और कुत्तों का भूँकना सुनाई दिया, मानो कोई बस्ती है। थोड़ी देर चलकर गाँव आ गया। मरहठों ने गाँव छोड़ दिया, धर्म सिंह को एक ओर धरती पर बिठा दिया। बालक आकर उस पर पत्थर फेंकने लगे। परंतु एक मरहठे ने उन्हें वहाँ से भगा दिया। लाल दाढ़ी वाले ने एक सेवक को बुलाया, वह दुबला पतला आदमी फटा हुआ कुरता पहने था। मरहठे ने उससे कुछ कहा, वह जाकर बेड़ी उठा लाया। मरहठों ने धर्म सिंह की मुस्कें खोल कर उसके पाँव में बेड़ी डाल दी और उसे कोठरी में कैद करके ताला लगा दिया।
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उस रात धर्म सिंह जरा भी नहीं सोया। गरमी की ऋतु में रातें छोटी होती हैं, शीघ्र प्रातःकाल हो गया। दीवार में एक झरोखा था, उसी से अंदर उजाला आ रहा था। झरोखे के द्वारा धर्म सिंह ने देखा कि पहाड़ी के नीचे एक सड़क उतरी है, दाईं ओर एक मरहठे का झोपड़ा है। उसके सामने दो पेड़ हैं। द्वार पर एक काला कुत्ता बैठा हुआ है। पास एक बकरी और उसके बच्चे पूँछ हिलाते फिर रहे हैं। एक स्त्री चमकीले रंग की साड़ी पहने पानी की गागर सिर पर धरे हुए एक बालक की उंगली पकड़े झोपड़े की ओर आ रही है। वह अंदर गयी कि लाल दाढ़ी वाला मरहठा रेशमी कपड़े पहने, चांदी के मुट्ठे की तलवार लटकाए हुए बाहर आया और सेवक से कुछ बात करके चल दिया। फिर दो बालक घोड़ों को पानी पिला कर लौटते हुए दिखाई पड़े। इतने में कुछ बालक कोठरी के निकट आ कर झरोखे में टहनियाँ डालने लगे। प्यास के मारे धर्म सिंह का कंठ सूखा जाता था। उसने उन्हें पुकारा, परंतु वे भाग गए।
इतने में किसी ने कोठरी का ताला खोला। लाल दाढ़ी वाला मरहठा भीतर आया। उसके साथ एक नाटा पुरुष था। उसका साँवला रंग, निर्मल काले नेत्र, गोल कपोल, कतरी हुई महीन दाढ़ी थी। वह प्रसन्नमुख हँसोड़ था। यह पुरुष लाल दाढ़ी वाले मरहठे से बहुत बढ़िया वस्त्र पहने हुए था, सुनहरी गोट लगी हुई नीले रंग की रेशमी अचकन थी। चांदी के म्यान वाली तलवार, कलाबत्तू का जूता था। लाल दाढ़ीवाला मरहठा कुछ बड़बड़ाता धर्म सिंह को कनखियों से देखता द्वार पर खड़ा रहा। साँवला पुरुष आकर धर्म सिंह के पास बैठ गया और आँखें मटका कर जल्दी-जल्दी अपनी मातृभाषा में कहने लगा- बड़ा अच्छा राजपूत है।
धर्म सिंह ने एक अक्षर भी न समझा- हाँ, पानी माँगा। साँवला पुरुष हँसा, तब धर्म ने होंठ और हाथों के संकेत से जताया कि मुझे प्यास लगी है। साँवले पुरुष ने पुकारा- सुशीला!
एक छोटी-सी कन्या दौड़ती हुई भीतर आई। तेरह वर्ष की अवस्था, साँवला रंग, दुबली पतली, नेत्र काले और रसीले, सुंदर बदन, नीली साड़ी, गले में स्वर्णहार पहने हुए। साँवले पुरुष की पुत्री मालूम पड़ती थी। पिता की आज्ञा पाकर वह पानी का एक लोटा ले आई और धर्म सिंह को भौंचक्की होकर देखने लगी कि वह कोई वनचर है।
फिर खाली लोटा लेकर सुशीला ने ऐसी छलांग मारी कि साँवला पुरुष हँस पड़ा। तब पिता के कहने से कुछ रोटी ले आई। इसके पीछे वे सब बाहर चले गए और कोठरी का ताला बंद कर दिया।
कुछ देर पीछे एक सेवक आकर मराठी में कुछ कहने लगा। धर्म ने समझा कि कहीं चलने को कहता है। वह उसके पीछे हो लिया, बेड़ी के कारण लंगड़ा कर चलता था। बाहर आकर धर्म ने देखा कि दस घरों का एक गाँव है। एक घर के सामने तीन लड़के तीन घोड़े पकड़े खड़े हैं। साँवला पुरुष बाहर आया और धर्म को भीतर आने को कहा। धर्म भीतर चला गया, देखा कि मकान स्वच्छ है, गोबरी फिरी हुई है, सामने की दीवार के आगे गद्दा बिछा हुआ है। तकिए लगे हुए हैं। दाईं बाईं दीवारों पर परदे गिरे हुए हैं। उन पर चांदी के काम की बंदूकें, पिस्तौलें और तलवारें लटकी हुई हैं। गद्दे पर पाँच मरहठे बैठे हैं। एक साँवला पुरुष दूसरा लाल दाढ़ी वाला और तीन अतिथि- सब भोजन कर रहे हैं।
धर्म सिंह धरती पर बैठ गया। भोजन से निश्चिंत होकर एक मरहठा बोला- देखो राजपूत, तुम्हें दयाराम ने पकड़ा है, (साँवले पुरुष की ओर उंगली करके) और संपतराव के हाथ बेच डाला है, अतएव अब संपतराव तुम्हारा स्वामी है।
धर्म सिंह कुछ न बोला। संपतराव हँसने लगा।
मरहठा- वह यह कहता है कि तुम घर से रुपए मँगवा लो, दंड दे देने पर तुमको छोड़ दिया जाएगा।
धर्म सिंह- कितने रुपए?
मरहठा- तीन हजार।
धर्म सिंह- मैं तीन हजार नहीं दे सकता।
मरहठा- कितना दे सकते हो?
धर्म सिंह- पाँच सौ।
यह सुनकर मरहठे सिटपिटाए। संपतराव दयाराम से तकरार करने लगा और इतनी जल्दी जल्दी बोलने लगा कि उसके मुँह से झाग निकल आया। दयाराम ने आँखें नीची कर लीं थोड़ी देर में मरहठे शांत हुए और फिर मोलतोल करने लगे। एक मरहठे ने कहा- पाँच सौ रुपए से काम नहीं चल सकता। दयाराम को संपतराव का रुपया देना है। पाँच सौ रुपए में तो संपतराव ने तुम्हें मोल ही लिया है, तीन हजार से कम नहीं हो सकता। यदि रुपया न मँगाओगे तो तुम्हें कोड़े मारे जाएँगे।
धर्म ने सोचा कि जितना डरोगे, यह दुष्ट उतना ही डराएँगे। वह खड़ा होकर बोला- इस भले मानुस से कह दो कि यदि मुझे कोड़ों का भय दिखाएगा तो मैं घर वालों को कुछ नहीं लिखूँगा। मैं तुम चांडालों से नहीं डरता।
संपतराव- अच्छा, एक हजार मँगाओ।
धर्म सिंह- पाँच सौ से एक कौड़ी ज्यादा नहीं। यदि तुम मुझे मार डालोगे तो इस पाँच सौ से भी हाथ धो बैठोगे।
यह सुन कर मरहठे आपस में सलाह करने लगे। इतने में एक सेवक एक मनुष्य को लिए हुए भीतर आया। यह मनुष्य मोटा था, नंगे पैर, बेड़ी पड़ी हुई। धर्म सिंह उसे देख कर चकित हो गया। यह पुरुष चरन सिंह था। सेवक ने चरन सिंह को धर्म के पास बैठा दिया। वे एक दूसरे से अपनी बिथा करने लगे। धर्म सिंह ने अपना वृत्तांत कह सुनाया। चरन सिंह बोला- मेरा घोड़ा अड़ गया, बंदूक रंजक चाट गई और संपतराव ने मुझे पकड़ लिया।
संपतराव- (फिर) अब तुम दोनों एक ही स्वामी के वश में हो। जो पहले रुपया दे देगा, वही छोड़ दिया जाएगा। (धर्म सिंह की ओर देख कर) देखा, तुम कैसे क्रोधी हो और तुम्हारा साथी कैसा सुशील है। उसने पाँच हजार रुपए भेजने को घर लिख दिया है, इस कारण उसका पालन-पोषण भलीभाँति किया जाएगा।
धर्म सिंह- मेरा साथी जो चाहे सो करे, वह धनवान है, और मैं तो पाँच सौ रुपए से अधिक नहीं दे सकता, चाहे मारो, चाहे छोड़ो।
मरहठे चुप हो गए। संपतराव झट से कलमदान उठा लाया। कागज, कमल, दवात निकालकर धर्म की पीठ ठोंक, उसे लिखने को कहा। वह पाँच सौ रुपए लेने पर राजी हो गया था।
धर्म सिंह- जरा ठहरो। देखो, हमारा पालन-पोषण भलीभाँति करना, हमें एक साथ रखना, जिससे हमारा समय अच्छी तरह कट जाए। बेड़ियाँ भी निकाल दो।
संपतराव- जैसा चाहे वैसा भोजन करो। बेड़ियाँ नहीं निकाल सकता। शायद तुम भाग जाओ। हाँ, रात को निकाल दिया करुँगा।
धर्म सिंह ने पत्र लिख दिया। परंतु पता सब झूठ लिखा, क्योंकि मन में निश्चय कर चुका था कि कभी न कभी भाग जाऊँगा।
तब मरहठों ने चरनसिंह और धर्म सिंह को एक कोठरी में पहुँचा कर एक लोटा पानी, कुछ बाजरे की रोटियाँ देकर ऊपर से ताला बंद कर दिया।
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धर्म सिंह और चरन सिंह को इस प्रकार रहते-रहते एक महीना गुजर गया। संपतराव उनको देखकर सदैव हँसता रहता था, पर खाने को बाजरे की अधपकी रोटी के सिवाय और कुछ न देता था। चरन सिंह उदास रहता और कुछ न करता। दिन भर कोठरी में पड़ा सोया रहता और दिन गिनता रहता था कि रुपया कब आए कि छूटकर अपने घर पहुँचूँ। धर्म तो जानता था कि रुपया कहाँ से आना है। जो कुछ घर भेजता था, माता उसी पर निर्वाह करती थी। वह बेचारी पाँच सौ रुपए कैसे भेज सकती है। ईश्वर की दया होगी तो मैं भाग जाऊँगा। वह घात में लगा हुआ था। कभी सीटी बजाता हुआ गाँव का चक्कर लगाता, कभी बैठ कर मिट्टी के खिलौने और टोकरियाँ बनाता। वह हाथों का चतुर था।
एक दिन उसने एक गुड़िया बना कर छत पर रख दी। गाँव की स्त्रियाँ जब पानी भरने आईं, तो सुशीला ने उनको बुला कर गुड़िया दिखलाई। वे सब हँसने लगीं। धर्म सिंह ने गुड़िया सबके आगे कर दी, परंतु किसी ने नहीं ली। वह उसे बाहर रख कर कोठरी में चला गया कि देखें क्या होता है। सुशीला गुड़िया उठाकर भाग गई।
अगले दिन धर्म ने देखा कि सुशीला द्वार पर बैठी गुड़िया के साथ खेल रही है। एक बुढ़िया आई। उसने गुड़िया छीनकर तोड़ डाली, सुशीला भाग गयी। धर्म सिंह ने और गुड़िया बनाकर सुशीला को दे दी। फल यह हुआ कि वह एक दिन छोटा-सा लोटा लाई, भूमि पर रखा और धर्म को दिखा कर भाग गई। धर्म ने देखा तो उसमें दूध था। अब सुशीला नित्य अच्छे-अच्छे भोजन ला कर धर्म को देने लगी।
एक दिन आंधी आई। एक घंटा मूसलाधार मेंह बरसा, नदियाँ-नाले भर गए। बाँध पर सात फुट पानी चढ़ आया। जहाँ तहाँ झरने झरने लगे, धार ऐसी प्रबल थी कि पत्थर लु़ढ़के जाते थे। गाँव की गलियों में नदियाँ बहने लगीं। आंधी थम जाने पर धर्म सिंह ने संपतराव से चाकू माँग कर एक पहिया बना, उसके दोनों ओर दो गुड़िया बाँधकर पहिए को पानी में छोड़ दिया, वह पानी के बल से चलने लगा। सारा गाँव इकट्ठा हो गया और गुड़ियों को नाचते देख कर तालियाँ बजाने लगा। संपतराव के पास एक पुरानी बिगड़ी हुई घड़ी पड़ी थी। धर्म सिंह ने उसे ठीक कर दिया। उसके पीछे और लोग अपने घंटे, पिस्तौल, घड़ियाँ ला-ला कर धर्म से ठीक कराने लगे। इस कारण संपतराव ने प्रसन्न होकर धर्म सिंह को एक चिमटी, एक बरमी और एक रेती दे दी।
एक दिन एक मरहठा रोगी हो गया। सब लोग धर्म सिंह के पास आ कर दवा-दारू माँगने लगे। धर्म कुछ वैद्य तो था ही नहीं, पर उसने पानी में रेता मिला कर कुछ मंत्र-सा पढ़ कर कहा कि जाओ, यह पानी रोगी को पिला दो। पानी पिलाने पर रोगी चंगा हो गया। धर्म के भाग्य अच्छे थे। अब बहुत से मरहठे उसके मित्र बन गए। हाँ, कुछ लोग अब भी उस पर संदेह करते थे।
दयाराम धर्म सिंह से चिढ़ता था। जब उसे देखता, मुँह फेर लेता। पहाड़ी के नीचे एक और बू़ढ़ा रहता था। मंदिर में आने के समय धर्म सिंह उसे देखा करता था। यह बूढ़ा नाटा था। दाढ़ी मूँछ बर्फ की भाँति श्वेत, मुँह पोला, उसमें झुर्रियाँ पड़ी हुईं, नाक नुकीली, नेत्र निर्दयी, दो दाँतों के सिवाय सब दाँत टूटे हुए। वहीं लकड़ी टेकता, चारों ओर भेड़िए की तरह झाँकता हुआ मंदिर में जाने के समय जब कभी धर्म सिंह को देख पाता था तो जल कर राख हो जाता और मुँह फेर लेता था।
एक दिन धर्म सिंह बूढ़े का घर देखने के लिए पहाड़ी के नीचे उतरा। कुछ दूर जाने पर एक बगीचा मिला। चारों ओर पत्थर की दीवार बनी हुई थी। बीच में मेवे के वृक्ष लगे हुए थे। वृक्षों में एक झोपड़ा था। धर्म सिंह आगे बढ़ कर देखना चाहता था कि उसकी बेड़ी खड़की। बूढ़ा चौंका। कमर से पिस्तौल निकाल कर उसने धर्म सिंह पर गोली चलाई, पर वह दीवार की ओट में हो गया। बूढ़े को आ कर संपतराव से कहते सुना कि धर्म सिंह बड़ा दुष्ट है। संपतराव ने धर्म को बुलाकर पूछा- तुम बूढ़े के घर क्यों गए थे?
धर्म सिंह बोला- मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। मैं केवल यह देखने लगा था कि वह बूढ़ा कहाँ रहता है। संपत ने बूढ़े को शांत करने का बहुत यत्न किया, पर वह बड़बड़ाता ही रहा। धर्म सिंह केवल इतना ही समझ सका कि बूढ़ा यह कह रहा है कि राजपूतों का गाँव में रहना अच्छा नहीं, उन्हें मार देना चाहिए। बूढ़ा चल दिया, तो धर्म सिंह ने संपतराव से पूछा कि बूढ़ा कौन है?
संपतराव- यह बड़ा आदमी है, इसने बहुत राजपूत मारे हैं। पहले यह बड़ा धनवान था। इसके तीन स्त्रियाँ और आठ पुत्र थे। सब एक ही गाँव में रहा करते थे। एक दिन राजपूतों ने धावा करके गाँव जला दिया। इसके सात पुत्र तो मर गए, आठवाँ कैद हो गया। यह बू्ढ़ा राजपूतों के पास जा कर और उनके संग रह कर अपने पुत्र की खोज लगाने लगा। अंत में उसे पा कर अपने हाथ से उसका वध करके भाग आया। फिर विरक्त होकर तीर्थयात्रा को चला गया। अब यह पहाड़ी के नीचे रहता है। यह बूढ़ा कहता था कि तुम्हें मार डालना उचित है; परंतु मैं तुमको मार नहीं सकता, फिर रुपया कहाँ से मिलेगा? इसके सिवाय मैं तुम्हें यहाँ से जाने भी न दूँगा।
इस तरह धर्म यहाँ एक महीना रहा। दिन को वह इधर-उधर फिरा करता या कोई चीज बनाता, लेकिन रात को वह दीवार में छेद किया करता। दीवार पत्थर की थी, खोदना सहज नहीं था। लेकिन वह पत्थरों को रेती से काटता था। यहाँ तक कि अंत में उसने अपने निकलने भर को एक छेद बना लिया। बस, अब उसे यह चिंता हुई कि रास्ता मालूम हो जाए।
एक दिन संपतराव शहर गया हुआ था। धर्म सिंह भोजन करके तीसरे पहर रास्ता देखने की इच्छा से सामने वाली पहाड़ी की ओर चल दिया। संपतराव बाहर जाते समय अपने पुत्र से सदैव कह जाया करता था कि धर्म सिंह को आँखों से परे न होने देना। इस कारण बालक उसके पीछे दौड़ा और चिल्ला कर कहने लगा- मत जाओ, मेरे पिता की आज्ञा नहीं है यदि तुम नहीं लौटोगे, तो मैं गाँव वालों को बुला लूँगा।
धर्म सिंह बालक को फुसलाने लगा- मैं दूर नहीं जाता, केवल उस पहाड़ी पर जाने की इच्छा है। रोगियों के वास्ते मुझे एक बूटी की जरूरत है, तुम भी साथ चलो। बेड़ी के होते कैसे भागूँगा? असंभव है। आओ, कल मैं तुमको तीर-कमान बना दूँगा।
बालक मान गया। पहाड़ी की चोटी कुछ दूर न थी। बेड़ी के कारण चलना कठिन था, परंतु ज्यों त्यों करके धर्म सिंह चोटी पर पहुँच कर चारों ओर देखने लगा। दक्षिण दिशा में एक घाटी दिखाई दी। उसमें घोड़े चल रहे थे। घाटी के नीचे एक गाँव था। उससे परे एक ऊँची पहाड़ी थी, फिर एक और पहाड़ी थी। इन पहाड़ियों के बीचों बीच जंगल था, उससे परे पहाड़ थे, एक से एक ऊँचे। पूर्व और पश्चिम दिशा में भी ऐसी ही पहाड़ियां थीं। कंदराओं में से जहाँ-तहाँ गाँवों का धुआं उठ रहा था। वास्तव में यह मरहठों का देश था। उत्तर की ओर देखा, तो पैरों तले एक नदी बह रही है और वही गाँव है, जिसमें वह रहा करता था। गाँव के चारों ओर बगीचे लगे हुए थे और स्त्रियाँ नदी पर बैठी वस्त्र धो रही थीं, और ऐसी जान पड़ती थीं मानो गुड़िया बैठी हैं। गाँव से परे एक पहाड़ी थी, परंतु दक्षिण दिशा वाली पहाड़ी से नीची। उससे परे दो पहाड़ियाँ और थीं, उन पर घना जंगल था। इनके बीच में मैदान था। मैदान के पार बहुत दूर पर कुछ धुआं-सा दिखाई दिया। अब धर्म सिंह को याद आया कि किले में रहते हुए सूर्य कहाँ से उदय होता और कहाँ अस्त हुआ करता था। उसे निश्चय हो गया कि धुएं का बादल हमारा किला है और उसी मैदान में से जाना होगा।
अँधेरा हो गया। मंदिर का घंटा बजने लगा। पशु घर लौट आए। धर्म सिंह भी अपनी कोठरी में आ गया। रात अँधेरी थी। उसने उसी रात भागने का विचार किया पर दुर्भाग्य से संध्या समय मरहठे घर लौट आए। आज उनके साथ एक मुर्दा था। मालूम होता था कि कोई मरहठा युद्ध में मारा गया है।
मरहठे उस शव को स्नान कराकर श्वेत वस्त्र लपेट, अर्थी बना 'राम नाम सत्त' कहते हुए गाँव से बाहर जाकर शमशान भूमि में दाह करके घर लौट आए। तीन दिन उपवास करने के बाद चौथे दिन बाहर चले गए। संपतराव घर ही में रहा। रात अँधेरी थी, शुक्ल पक्ष अभी लगा ही था।
धर्म सिंह ने सोचा कि रात को भागना ठीक है। चरन सिंह से कहा- भाई चरन सुरंग तैयार है। चलो, भाग चलें।
चरन सिंह- (भयभीत होकर) रास्ता तो जानते ही नहीं, भागेंगे कैसे?
धर्म सिंह- रास्ता मैं जानता हूँ।
चरन सिंह- माना कि तुम रास्ता जानते हो, परंतु एक रात में किले तक नहीं पहुँच सकते।
धर्म सिंह- यदि किले तक नहीं पहुँच सकेंगे तो रास्ते में कहीं जंगल में छिप कर दिन काट लेंगे। देखो, मैंने भोजन का प्रबंध भी कर लिया है। यहाँ पड़े-पड़े सड़ने में क्या लाभ है? यदि घर से रुपया न आया तो क्या बनेगा? राजपूतों ने एक मरहठा मार डाला है। इस कारण यह सब बहुत बिगड़े हुए हैं। भागना ही उचित है।
चरन सिंह- अच्छा, चलो।
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गाँव में जब सन्नाटा हो गया, तो धर्म सिंह सुरंग से बाहर निकल आया। पर चरन सिंह के पैर से एक पत्थर गिर पड़ा। धमाका हुआ तो संपतराव का कुत्ता भूँका, लेकिन धर्म सिंह ने उसे पहले ही हिला लिया था, उसका शब्द सुन कर वह चुप हो गया।
रात अँधेरी थी। तारे निकले हुए थे। चारों ओर सन्नाटा था। घाटियाँ धुंध से ढँकी हुई थीं। चलते-चलते रास्ते में किसी छत पर से एक बू़ढ़े के राम नाम जपने की आवाज सुनाई दी। दोनों दुबक गए। थोड़ी देर में फिर सन्नाटा छा गया, तब वे आगे बढ़े।
धुंध बहुत छा गई। धर्म सिंह तारों की ओर देख कर राह चलने लगा। ठंड के कारण चलना सहज न था, धर्म सिंह कूदता फाँदता चला जाता था, चरन सिंह पीछे रहने लगा।
चरन सिंह- भाई धर्म, जरा ठहरो, जूतों ने मेरे पैरों में छाले डाल दिए।
धर्म सिंह- जूते निकाल कर फेंक दो, नंगे पैर चलो।
चरन सिंह ने जूते निकाल कर फेंक दिए, पत्थरों ने उसके पाँव घायल कर दिए। वह ठहर-ठहर कर चलने लगा।
धर्म सिंह- देखो चरन, पाँव तो फिर चंगे हो जाएँगे, पर यदि मरहठों ने आ पकड़ा तो फिर समझ लो कि जान गई।
चरन सिंह चुप होकर पीछे चलने लगा। थोड़ी दूर जाने पर धर्म सिंह बोला- हाय, हाय, हम रास्ता भूल गए, हमें तो बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ना चाहिए था।
चरन सिंह- ठहरो, जरा दम लेने दो। मेरे पैर घायल हो गए हैं। देखो, रक्त बह रहा है।
धर्म सिंह- कुछ चिंता नहीं, ये सब ठीक हो जाएँगे, तुम चले चलो।
वे लौट कर बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ गए। आगे जंगल मिला। झाड़ियों ने उनके सब वस्त्र फाड़ डाले। इतने में कुछ आहट हुई, वे डर गए। समीप जाने पर मालूम हुआ कि बारहसिंगा भागा जा रहा है।
प्रातःकाल होने लगा। किला यहाँ से अभी सात मील पर था। मैदान में पहुँचकर चरन सिंह बैठ गया और बोला- मेरे पाँव थक गए, मैं अब नहीं चल सकता।
धर्म सिंह- (क्रोध से) अच्छा तो रामराम, मैं अकेला ही चलता हूँ।
चरन सिंह उठकर साथ हो लिया। तीन मील चलने पर अचानक सामने से घोड़े की टाप सुनाई दी। वे भागकर जंगल में घुस गए।
धर्म सिंह ने देखा कि घोड़े पर चढ़ा हुआ एक मरहठा जा रहा है। जब वह निकल गया तो धर्म बोला कि भगवान ने बड़ी दया की कि उसने हमें नहीं देखा। चरन भाई, अब चलो।
चरन सिंह- मैं नहीं चल सकता, मुझमें ताकत नहीं।
चरन सिंह मोटा आदमी था, ठंड के मारे उसके पैर अकड़ गए। धर्म सिंह उसे उठाने लगा, तो चरन सिंह ने चीख मारी।
धर्म सिंह- हैंहैं! यह क्या, मरहठा तो अभी पास ही जा रहा है, कहीं सुन न ले अच्छा, यदि तुम नहीं चल सकते हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ।
धर्म सिंह ने चरन सिंह को पीठ पर बिठला कर किले की राह ली।
धर्म सिंह- भाई चरन सिंह, सीधी तरह बैठे रहो, गला क्यों घोंटते हो?
5
अब उधर की बात सुनिए। मरहठे ने चरन सिंह का शब्द सुन लिया। उसने गोली चलाई, परंतु खाली गई। मरहठा दूसरे साथियों को लेने के लिए घोड़ा दौड़ा कर चल दिया।
धर्म सिंह- चरन, मालूम होता है कि उस दुष्ट ने तुम्हारी आवाज सुन ली। वह अपने साथियों को बुलाने गया है। यदि उसके आने से पहले-पहले हम दूर नहीं निकल जाएँगे, तो समझो कि जान गई। (मन में) यह बोझा मैंने क्यों उठाया, यदि मैं अकेला होता तो अब तक कभी का निकल गया होता।
चरन सिंह- तुम अकेले चले जाओ, मेरे कारण प्राण क्यों खोते हो?
धर्म सिंह- कदापि नहीं, साथी को छोड़ कर चल देना धर्म के विरुद्ध है।
धर्म सिंह फिर चरन सिंह को कंधे पर लाद कर चलने लगा। आधा मील चलने पर एक झरना मिला। धर्म सिंह बहुत थक गया था। चरन सिंह को कंधे से उतार कर विश्राम करने लगा। पानी पीना ही चाहता था कि पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दीं। दोनों भाग कर झाड़ियों में छिप गए।
मरहठे ठीक वहीं आकर ठहरे, जहाँ दोनों छिपे हुए थे। उन्होंने सूंघ लेने को कुत्ता छोड़ा। फिर क्या था, दोनों पकड़े गए। मरहठों ने दोनों को घोड़ों पर लाद लिया। राह में संपतराव मिल गया, अपने कैदियों को पहचाना। तुरंत उन्हें अपने साथ वाले घोड़ों पर बैठाया और दिन निकलते-निकलते वे सब ग्राम में पहुँच गए।
उसी समय बू़्ढ़ा भी वहाँ आ गया। सब मरहठे विचार करने लगे कि क्या किया जाए। बू़्ढ़े ने कहा कि कुछ मत करो, इन दोनों का तुरंत वध कर दो।
संपतराव- मैंने तो उन पर रुपया लगाया है, मार कैसे डालूँ?
बूढ़ा- राजपूतों को पालना पाप है। वे तुम्हें सिवाय दुःख के और कुछ न देंगे, मार कर झगड़ा समाप्त करो।
मरहठे इधर-उधर चले गए। संपतराव धर्म सिंह के पास आया और बोला- देखो धर्म सिंह, पंद्रह दिन के अंदर यदि रुपया न आया, और तुमने फिर भागने का साहस किया, तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूँगा, इसमें संदेह नहीं। अब शीघ्र घर वालों को पत्र लिख डालो कि तुरंत रुपया भेज दें।
दोनों ने पत्र लिख दिए। फिर वे पहले की भाँति कैद कर दिए गए, परंतु कोठरी में नहीं, अब की बार छः हाथ चौड़े गड्ढे में बंद किए गए।
6
अब उन्हें अत्यंत कष्ट दिया जाने लगा। न बाहर जा पाते थे, न बेड़ियाँ निकाली जाती थीं। कुत्तों के समान अधपकी रोटी, एक लोटे में पानी पहुँचा दिया जाता था, और कुछ नहीं। गड्ढा सीला था, उसमें अँधेरा और अति दुर्गंध थी। चरन सिंह का सारा शरीर सूख गया, धर्म सिंह मनमलीन, तनछीन रहने लगा। करे तो क्या करे?
धर्म एक दिन बहुत उदास बैठा था कि ऊपर से रोटी गिरी, देखा तो सुशीला बैठी हुई है।
धर्म सिंह ने सोचा, क्या सुशीला इस काम में मेरी सहायता कर सकती है। अच्छा, इसके लिए कुछ खिलौने बनाता हूँ। कल जब आएगी, तब इसे देकर फिर बात करुँगा।
दूसरे दिन सुशीला नहीं आई। धर्म सिंह के कान में घोड़ों के टापों की आवाज आई। कई आदमी घोड़ों पर सवार उधर से निकल गए। वे सब बातें करते जाते थे। धर्म सिंह को और तो कुछ न समझ में आया- हाँ, 'राजपूत' शब्द बारबार सुनाई दिया। इससे उसने अनुमान किया कि राजपूतों की सेना कहीं निकट आ पहुँची है।
तीसरे दिन सुशीला फिर आई और दो रोटियाँ गड्ढे में फेंक दीं, तब धर्म सिंह बोला- तू कल क्यों नहीं आई? देख, मैंने तेरे वास्ते ये खिलौने बनाए हैं।
सुशीला- खिलौने लेकर क्या करुँगी; मुझे खिलौने नहीं चाहिए। उन्होंने तुम्हें मार डालने का विचार कल पक्का कर लिया है। सब मरहठे इकट्ठे हुए थे, इसी कारण मैं कल नहीं आ सकी।
धर्म सिंह- कौन मारना चाहता है?
सुशीला- मेरा पिता। बूढ़े ने यह सलाह दी है कि राजपूतों की सेना निकट आ गई है, तुम्हें मार डालना ही ठीक है। मुझे तो यह सुनकर रोना आता है।
धर्म सिंह- यदि तुम्हें दया आती है, तो एक बाँस ला दो।
सुशीला- यह नहीं हो सकता।
धर्म सिंह- सुशीला, दया कर, मैं हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि एक बाँस ला दो।
सुशीला-बाँस कैसे लाऊँ, वे सब घर पर बैठे हैं, देखे लेंगे। यह कह कर वह चली गई।
सूर्य अस्त हो गया। तारे चमकने लगे। चाँद अभी नहीं निकला था, मंदिर का घंटा बजा, बस फिर सन्नाटा हो गया। धर्म सिंह इस विचार में बैठा था कि सुशीला बाँस लाएगी अथवा नहीं।
अचानक ऊपर से मिट्टी गिरने लगी। देखा तो सामने की दीवार में बाँस लटक रहा है। धर्म सिंह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बाँस को नीचे खींच लिया।
बाहर आकाश में तारे चमक रहे थे। गड्ढे के किनारे पर मुँह रखकर धीरे से सुशीला ने कहा- धर्म सिंह, सिवाय दो के और सब बाहर चले गए हैं।
धर्म सिंह ने चरन सिंह से कहा- भाई चरन! आओ, एक बार फिर यत्न कर देखें, हिम्मत न हारो। चलो, मैं तुम्हारी सहायता करने को तैयार हूँ।
चरनसिंह- मुझमें तो करवट लेने की शक्ति नहीं, चलना तो एक ओर रहा। मैं नहीं भाग सकता।
धर्म सिंह- अच्छा, रामराम, परंतु मुझे निर्दयी मत समझना।
धर्म सिंह चरन सिंह से गले मिला, बाँस का एक सिरा सुशीला ने पकड़ा, दूसरा सिरा धर्म सिंह ने। इस भाँति वह बाहर निकल आया।
धर्म सिंह- सुशीला, तुम्हें भगवान कुशल से रखें। मैं जन्मभर तुम्हारा जस गाऊँगा। अच्छा, जीती रहो, मुझे भूल मत जाना।
धर्म सिंह ने थोड़ी दूर जाकर पत्थरों से बेड़ी तोड़ने का बहुत ही यत्न किया, पर वह न टूटी। वह उसे हाथ में उठा कर चलने लगा। वह चाहता था कि चंद्रमा उदय होने से पहले जंगल में पहुँच जाय, परंतु पहुँच न सका। चंद्रमा निकल आया, चारों ओर उजाला हो गया, पर सौभाग्य से जंगल में पहुँचने तक राह में कोई न मिला।
धर्म सिंह फिर बेड़ी तोड़ने लगा, पर सारा यत्न निष्फल हुआ। वह थक गया, हाथ-पाँव घायल हो गए। विचारने लगा, अब क्या करुँ? बस, चलो, ठहरने का काम नहीं। यदि एक बार बैठ गया, तो फिर उठना कठिन हो जायेगा। माना कि प्रातःकाल से पहले किले में नहीं पहुँच सकता, न सही, दिन भर जंगल में काट दूँगा, रात आने पर फिर चल दूँगा सहसा पास से दो मरहठे निकले, वह झट झाड़ी में छिप गया।
चाँद फीका पड़ गया, सवेरा होने लगा। जंगल पीछे छूट गया, साफ मैदान आ गया। किला दिखाई देने लगा। बाईं ओर देखने पर मालूम हुआ कि थोड़ी दूर पर कुछ राजपूत सिपाही खड़े हैं। धर्म सिंह मगन हो गया और बोला- अब क्या है, परंतु ऐसा न हो कि मरहठे पीछे से आ पकड़ें, मैं सिपाहियों तक न पहुँच सकूँ, इस कारण जितना भागा जाए भागो।
इतने में बाईं ओर दो सौ कदम की दूरी पर कुछ मरहठे दिखाई दिए। धर्म निराश हो गया, चिल्ला उठा- भाइयों, दौड़ो, दौड़ो! मुझे बचाओ, बचाओ!
राजपूत सिपाहियों ने धर्म सिंह की पुकार सुन ली। मरहठे समीप थे, सिपाही दूर थे। वे दौड़े, धर्म सिंह भी बेड़ी उठा कर 'भाइयों, भाइयों' कहता हुआ ऐसा भागा कि झट सिपाहियों से जा मिला, मरहठे डरकर भाग गए।
राजपूत पूछने लगे कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो, परंतु धर्म सिंह घबराया हुआ 'भाइयों, भाइयों' पुकारता चला जाता था। निकट आने पर सिपाहियों ने उसे पहचान लिया। धर्म सिंह सारा वृत्तांत कह कर बोला- भाइयों, इस तरह मैं घर गया और विवाह किया। विधाता की यही लीला थी।
एक महीना पीछे पाँच हजार मुद्रा देकर चरन सिंह छूटकर किले में आया। वह उस समय अधमुए के समान हो रहा था।

premchand ki kahani

ईदगाहपीछे    आगे

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जायगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गयी। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयाँ खायेंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाय। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगें- खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब- सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गयी हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है- तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाय तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। माँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गयी तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आयेंगी। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराये? साल भर का त्यौहार है। ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जायँगे।
गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब- घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछो दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्माँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें। घुमाते ही लुढ़क जायँ।
महमूद ने कहा- हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोला- चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।
महमूद- लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
मोहसिन- हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गयी थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।
हामिद को यकीन न आया- ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?
मोहसिन ने कहा- जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहैं चले जायँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गये, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायँ।
हामिद ने फिर पूछा- जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
मोहसिन- एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।
हामिद- लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।
मोहसिन- अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाय चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गये। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं।रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर 'जागते रहो! जागते रहो!' पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रूपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे- बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले-हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।
हामिद ने पूछा- यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गयी। सारी लेई-पूँजी जल गयी। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाये तो बरतन-भांडे आये।
हामिद-एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं?
'कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?
अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आयी। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गयी हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायँ, और यही क्रम चलता रहा। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।
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नमाज खत्म हो गयी है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं-सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किये चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वमता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाय। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाय। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!
मोहसिन कहता है- मेरा भिश्ती रोज पानी दे जायगा साँझ-सबेरे।
महमूद- और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आयेगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
नूरे- और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
सम्मी- और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।
हामिद खिलौनों की निंदा करता है- मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जायँ, लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचाता रह जाता है।
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचायी आँखों से सबकी ओर देखता है।
मोहसिन कहता है- हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन- अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाव।
हामिद- रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?
सम्मी- तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?
महमूद- हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहमिन बदमाश है।
हामिद- मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
मोहसिन- लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
महमूद- हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खायगा।
मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उंगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जायगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आये हैं जिद कर के ले लेंगे और तोड़ डालेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्माँ बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।
हामिद के साथी आगे बढ़ गये हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खायें मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जायगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी-मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआयें देगा? बड़ों की दुआयें सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरे पास पैसे नहीं हैं।तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खायें मिठाइयाँ। मै नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आयेंगे। अम्मा भी आयेंगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब खूब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा- यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा- तुम्हारे काम का नहीं है जी!
'बिकाऊ है कि नहीं?'
'बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाये हैं?'
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?'
'छ: पैसे लगेंगे।'
हामिद का दिल बैठ गया।
'ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।'
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा- तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!
मोहसिन ने हँसकर कहा- यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटककर कहा- जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायँ बच्चू की।
महमूद बोला-तो यह चिमटा कोई खिलौना है?
हामिद- खिलौना क्यों नही है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गयी। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाय। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नही कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला- मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा- मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाय तो खत्म हो जाय। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आये हैं, नौ कब के बज ग्ये, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बालकों के दो दल हो गये हैं। मोहसिन, मह्मूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाय तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायँ, मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाय, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जायँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जायगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।
मोहसिन ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर कहा- अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा- भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वाडर पर छिड़कने लगेगा।
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई- अगर बच्चा पकड़ जायँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा- हमें पकड़ने कौन आयेगा?
नूरे ने अकड़कर कहा- यह सिपाही बंदूकवाला।
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा- यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे-हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाय। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!
मोहसिन को एक नयी चोट सूझ गयी- तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जायगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया- आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
महमूद ने एक जोर लगाया- वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहेगा।
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की- मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।
बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी; लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गयी। ऐसी छा गयी कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गये मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जायँगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
संधि की शर्तें तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा- जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।
हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आये। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे- मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
मोहसिन- लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?
महमूद- दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्माँ जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें-हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह।
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गये। यह उस चिमटे का प्रसाद था।
3
ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गयी। मेलेवाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोये। उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।
मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गयी। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गयी।
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आयी, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठायी और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह 'छोनेवाले, जागते लहो' पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी ही होनी चाहिये। महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।
अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
'यह चिमटा कहाँ था?'
'मैंने मोल लिया है।
'कै पैसे में?'
'तीन पैसे दिये।'
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! 'सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया।
हामिद ने अपराधी भाव से कहा-तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया।
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!